कर पर नहीं कर्तव्य पर सुदृष्टि थी, आप से क्या लेना है इस पर जोर नहीं हमें क्या देना है यही रामराज्य की नींव थी.....
राज परिवारों का यह कर्तव्य है कि लोक कल्याण के लिए अनुष्ठान करते रहे : सुलभ शांतु जी महाराज
देवास। श्रीराम कथा राज परिवार और उनकी प्रजा के साथ संबंधों की ही तो कथा है राजा और उसकी प्रजा के साथ कैसा उसका आर्दश रिश्ता है ये राम कथा बताती है कथा का वाचन करते हुए सुलभ शांतु जी महाराज ने बताया कि जब महामुनी विश्वामित्र जी अयोध्या आये तो चकवर्ती राजा उन्हें अपने राजमहल में लेकर गये और उनके चरणों को धोकर उनकी पूजा की विविध प्रकार के व्यंजनों का भोजन कराया और फिर अपने सिंहासन पर लाकर उन्हें बैठाया और स्वयं उनके चरणों में बैठ गए ओर अपने भाग्य की सराहना करने लगे ओर कहा गुरूदेव आपके चरण यहां पड गये है इससे राज महल ओर राज परिवार धन्य हो गया है देखिये रघुकुल के राजा साधु ओर सन्यासी का कितना सम्मान करते है एक चकवर्ती सम्राट है जो एक साधु के चरणों में बैठ गये और साधु के चरणों में बैठकर उनको सिंहासन पर बैठाया ये हमारे भारत का आदर्श दृश्य है यह हमारी संस्कृति ये सभ्यताऐं है हमारी। कितना उच्च संस्कार है जिस राष्ट्र में ये पालन हो रहा है उसके वैभव को कोइ मिटा नहीं सकता उसकी पताका सदा लहराती रहेगी युगों-युगों तक किस देश में होता है ऐसा केवल और केवल भारत में ही है।
राजा लोग पहले साधुओं के मार्गदर्शन में ही राष्ट्रहित के लिए इस प्रकार के अनुष्ठान करते थे इस अनुष्ठान को देखकर ऐसा लग रहा है एक बार फिर उस युग में पहुंच गए है। क्योंकि एक और यज्ञ चल रहा है दूसरी और अनुष्ठान चल रहे तीसरे मंडप में श्री राम कथा हो रही है। सुबह और शाम को प्रार्थना की जा रही है यह राम राज्य के संकेत है राम राज्य क्या था सत्ता अपना सर्वश्रेष्ठ देने को आतुर थी नियत स्पष्ट थी कर पर नहीं कर्तव्य पर सुदृष्टि थी आप से क्या लेना है इस पर जोर नहीं हमें क्या देना है यही रामराज्य की नींव थी आधार था।
राम कथा के दौरान विश्वामित्र जी महाराज अयोध्या आकर महाराज दशरथ से राम और लक्ष्मण जी को अपने साथ ले जाने के लिए कहते है क्योंकि वनों मे जहां संत महात्मा यज्ञ, पूजा और अनुष्ठान कर रहे थे वहां राक्षसगण विध्न पैदा कर रहे थे महाराज दशरथ ने उनके वचनों को आदेश मानकर राम और लक्ष्मण जी को उनके साथ भेज दिया जहां भगवान राम और लक्ष्मण जी ने राक्षसो का नाश किया। गुरूजी के आदेश पर राम जी ओर लक्ष्मण जी जनकपुरी आते है जनक जी महाराज का संदेश आता है और महामुनी विश्वामित्र जी के साथ उस सभा में आते है जहां सीता स्वयंबर हो रहा था भरी सभा में जो धनुष रखा है जो उसको तोड़ेगा उसी से जानकी जी का वरण होगा। कई राजा धनुष को तोडऩे का प्रयास करते है लेकिन धनुष उनसे हिला भी नहीं पा रहे थे यह सब देख जनक जी बोले क्या धरती वीरों से खाली हो गई जनक जी महाराज के वचन सुनकर लक्ष्मण जी कोध आ गया ओर भरी सभा में बोले जनक जी महाराज राम जी अगर आज्ञा दे तो में धनुष को क्षण भर में तोड़ दूंगा लक्ष्मण जी को क्रोधित देख रामजी ने उनको अपने पास बैठाया और कहा कि जब तक गुरूजी का आदेश नहीं तब तक कुछ नहीं करना। गुरूदेव ने राम जी को आदेश दिया कि राम उठो गुरूदेव को प्रणाम करते हुए जहा धनुष रखा है वहा पहुंच जाते है उन्होंने धनुष को उठा कर प्रचंता चढ़ा दी और मध्य से धनुष को तोड़ दिया धनुष के टूटते ही सब दूर जय जयकार होने लगी गुरू के आदेश पर सीता जी ने उनके गले में जयमाला डाली और इस तरह स्वयंम्बर संपन्न हो गया। कथाकार महाराज श्री सुलभ शांतु जी महाराज ने संत श्री रविशंकर जी महाराज रावतपुरा सरकार के सानिध्य में चल रहे इस चातुर्मास व्रत अनुष्ठान के लिये आयोजक विधायक गायत्री राजे पवार व महाराज विक्रमसिंह पवार को धन्यवाद देते हुए इस मंगल कार्य को कल्याणकारी बताया तथा कहा कि इस आयोजन से राज परिवार के साथ-साथ शहरवासियों को धर्म लाभ मिलेगा।
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